शुक्रवार, 13 जून 2025

नैसर्गिक आपदा में संतों का मनोविज्ञान

 

नैसर्गिक आपदा में संतों का मनोविज्ञान


भूमिका:

नैसर्गिक आपदाएँ – जैसे भूकंप, बाढ़, सूखा, ज्वालामुखी, चक्रवात आदि – मानव जीवन को झकझोर देने वाली घटनाएँ होती हैं। ऐसे समय में अधिकांश लोग मानसिक रूप से टूट जाते हैं, भय, चिंता, और अवसाद से ग्रस्त हो जाते हैं। लेकिन एक वर्ग ऐसा भी होता है जो अत्यंत शांत, स्थिर और करुणामय बना रहता है – वह वर्ग है संतों का। संत, चाहे किसी भी धर्म या परंपरा के हों, आपदा के समय एक विशेष प्रकार की मानसिक स्थिति दर्शाते हैं जो आम जन से भिन्न होती है। इस लेख में हम नैसर्गिक आपदा के समय संतों की मानसिकता, उनके दृष्टिकोण, व्यवहार और मनोविज्ञान का विश्लेषण करेंगे।


संतों की मानसिकता का आधार:

संतों की मानसिकता सामान्य जन की मानसिकता से भिन्न होती है। उनके विचार, व्यवहार और अनुभूति एक दीर्घकालीन साधना, आत्मचिंतन और दार्शनिक दृष्टिकोण से पोषित होते हैं। वे जगत को ‘माया’ मानते हैं, शरीर को ‘नश्वर’ और आत्मा को ‘शाश्वत’। ऐसे विचार उन्हें नैसर्गिक आपदाओं में भी स्थिर, संतुलित और करुणा-युक्त बनाए रखते हैं।


1. वैराग्य और आत्म-नियंत्रण:

संतों का जीवन वैराग्य और आत्म-नियंत्रण पर आधारित होता है। वे भौतिक वस्तुओं से आसक्त नहीं होते, इसलिए जब आपदा में भौतिक संसाधन नष्ट होते हैं, तो वे मानसिक रूप से विचलित नहीं होते। उनका मन बाहर की वस्तुओं में नहीं, बल्कि आत्मा में स्थिर होता है।

उदाहरण: जब 2004 की सुनामी आई, कई संतों ने अपने आश्रमों को राहत केंद्र में परिवर्तित कर दिया और स्वयं भोजन, दवाइयाँ बाँटते रहे, जबकि उनके आश्रमों को भी नुकसान हुआ था। वे दुखी नहीं हुए, बल्कि सेवा में लग गए।


2. करुणा और सेवा भाव:

संतों का मन दूसरों की पीड़ा में सहज रूप से द्रवित होता है। आपदा के समय वे केवल अपने लिए नहीं सोचते, बल्कि समाज की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानते हैं। यही कारण है कि आपदाओं में वे सबसे पहले पीड़ितों की सहायता के लिए सामने आते हैं।

उदाहरण: अन्ना हज़ारे, बाबा आमटे जैसे संतों ने आपदाओं के समय जन-सेवा का कार्य सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा। बाबा आमटे ने कुष्ठ रोगियों की सेवा के साथ-साथ बाढ़ पीड़ितों के लिए भी बड़े पैमाने पर राहत कार्य किए।


3. अस्थायित्व की स्वीकृति:

संत यह भलीभांति जानते हैं कि संसार और इसकी घटनाएँ क्षणभंगुर हैं। इस गहरी समझ के कारण वे आपदा को भी जीवन के प्रवाह का हिस्सा मानते हैं। वे इसे विधि का विधान मानकर स्वीकार करते हैं, न कि विरोध।

यह मानसिकता उन्हें मानसिक शांति देती है, क्योंकि वे प्रश्न नहीं करते – “ऐसा क्यों हुआ?”, बल्कि कहते हैं – “जो हुआ, वह ईश्वर की इच्छा से हुआ, इसमें भी कोई गूढ़ कारण होगा।”


4. धैर्य और मानसिक संतुलन:

संतों में धैर्य की अद्भुत क्षमता होती है। वे भय, क्रोध, दुख आदि मानसिक विकारों से ऊपर उठ चुके होते हैं। आपदा के समय जब चारों ओर भय और अराजकता फैली होती है, वे लोगों के लिए मानसिक स्थिरता का स्तंभ बनते हैं।

उदाहरण: संत तुकाराम हों या संत एकनाथ, भले ही उनके व्यक्तिगत जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आईं, लेकिन उन्होंने कभी मानसिक संतुलन नहीं खोया। वे हमेशा शांत और ईश्वर में समर्पित बने रहे।


5. ध्यान और साधना की शक्ति:

संत ध्यान और साधना के द्वारा अपने मन पर नियंत्रण रखते हैं। आपदा के समय यह ध्यान उन्हें आंतरिक बल देता है। वे अपने मन को बाहरी परिस्थितियों से विचलित नहीं होने देते।

आधुनिक विज्ञान भी अब यह स्वीकार कर रहा है कि ध्यान और प्राणायाम मानसिक स्वास्थ्य के लिए वरदान हैं। संतों की साधना उन्हें इस मानसिक शक्ति से युक्त करती है जिससे वे किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होते।


6. प्रेरणा का स्रोत बनना:

आपदा के समय समाज में प्रेरणा की अत्यंत आवश्यकता होती है। संत अपने आचरण, वाणी और सेवा से लोगों को आशा, धैर्य और संयम का पाठ पढ़ाते हैं। वे अपने उदाहरण से दिखाते हैं कि विषम परिस्थितियों में भी मनुष्यता और सेवा सर्वोपरि है।

महात्मा गांधी एक ऐसे संत थे जिन्होंने विश्व युद्धों और भारत के विभाजन जैसी आपदाओं में भी अपने अहिंसक और करुणामय दृष्टिकोण से लोगों को संयमित रखा।


7. नव-सृजन की भावना:

आपदा के बाद पुनर्निर्माण और समाज को फिर से खड़ा करने की आवश्यकता होती है। संतों का मन नकारात्मकता में नहीं उलझता, वे आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं और कहते हैं – “अब हमें नया आरंभ करना है।”

ओशो जैसे संतों ने भी आपदाओं को चेतना की आंख खोलने वाली घटनाएँ बताया। वे कहते हैं कि हर संकट एक अवसर है – आत्मनिरीक्षण और पुनर्निर्माण का।


8. धार्मिक आस्था और आंतरिक शक्ति का संचार:

संत आपदा के समय धार्मिक विधियों, भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि के माध्यम से लोगों के मन में ईश्वर की आस्था बनाए रखते हैं। यह आस्था संकट की घड़ी में आंतरिक शक्ति का संचार करती है।

वेदों और उपनिषदों में वर्णित मंत्रों का उच्चारण, ध्यान और सामूहिक प्रार्थना – यह सब संतों द्वारा संचालित किया जाता है ताकि भयभीत समाज में मानसिक स्थिरता बनी रहे।


9. मृत्यु बोध और स्वीकार्यता:

संत मृत्यु को जीवन का अंत नहीं मानते, बल्कि एक अवस्था परिवर्तन मानते हैं। इस बोध के कारण वे आपदा में मृत्यु को लेकर भयभीत नहीं होते। जब चारों ओर मृत्यु का तांडव हो रहा होता है, तब भी संत शांत भाव से उसे स्वीकार करते हैं।

संत कबीर ने कहा था –
"जो उभरा सो डूबेगा, जो आया सो जाएगा।"
इस दृष्टिकोण से वे जीवन-मृत्यु दोनों को समभाव से देखते हैं।


10. सामूहिक चेतना का जागरण:

आपदा संतों के लिए केवल एक भौतिक घटना नहीं होती, वे इसे एक चेतावनी के रूप में देखते हैं। उनका यह दृष्टिकोण होता है कि शायद मानव समाज प्रकृति से बहुत दूर चला गया है, और यह समय है आत्ममंथन का। वे समाज को प्रकृति के साथ समरसता में जीने की प्रेरणा देते हैं।


निष्कर्ष:

नैसर्गिक आपदा के समय संतों का मनोविज्ञान समाज के लिए एक प्रकाश स्तंभ के समान होता है। वे न केवल स्वयं मानसिक संतुलन बनाए रखते हैं, बल्कि अन्य लोगों को भी मानसिक संबल, प्रेरणा और सेवा भाव प्रदान करते हैं। उनका जीवनदर्शन, सेवा भावना, वैराग्य और आध्यात्मिक ज्ञान उन्हें विषम परिस्थितियों में भी मजबूत बनाए रखता है। वर्तमान समय में, जब मानवता विभिन्न प्रकार की आपदाओं से जूझ रही है, ऐसे संतों का मार्गदर्शन और उनकी मनोवृत्ति हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है।


संभावित उपसंहार:

"जब प्रकृति क्रुद्ध होती है, तब केवल भौतिक संरचनाएँ नहीं, मानसिक संकल्प भी टूटते हैं। ऐसे समय में संतों का मनोविज्ञान – जो आत्म-शांति, करुणा, सेवा और समर्पण से युक्त होता है – समाज को न केवल आपदा से उबारने में मदद करता है, बल्कि उसे एक नया दृष्टिकोण भी देता है। संत अपने जीवन से सिखाते हैं कि संकट चाहे जितना भी बड़ा क्यों न हो, यदि मन स्थिर और श्रद्धा से युक्त हो, तो हर आपदा से उबरा जा सकता है।"



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