इस जल प्रलय में का सारांश
इस जल प्रलय में ऋणजल-धनजल नाम से रेणु ने सूखा और बाढ़ पर कुछ अत्यंत मर्मस्पर्शी रिपोर्ताज लिखे हैं, जिसका एक सुंदर उदाहरण है इस जल प्रलय में। इस पाठ में उन्होंने सन् 1975 की पटना की प्रलयंकारी बाढ़ का अत्यंत रोमांचक वर्णन किया है, जिसके वे स्वयं भुक्तभोगी रहे। उस कठिन आपदा के समय की मानवीय विवशता और चेतना को रेणु ने शब्दों के माध्यम से साकार किया है।
इस जल प्रलय में लेखक ने अपने गाँव और उससे जुड़े क्षेत्र का वर्णन किया है। लेखक सहायक कार्यकर्ता की हैसियत से अपने ग्रामीण अंचल के तमाम इलाकों में कार्य कर चुका है। लेखक कहता है कि उसने एक शहरी की भाँति बाढ़ की विभीषिका को भोगा है। वस्तुत: वर्तमान स्थिति में पटना शहर में आई बाढ़ के संदर्भ में पूर्व अनुभवों को याद करते हुए लेखक कहता है कि बाढ़ की विभीषिका केवल शारीरिक और आर्थिक रूप को प्रभावित नहीं करती है वरन् मानसिक-सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करती है।
इस जल प्रलय में लेखक ने बाढ़ आने से पूर्व का वर्णन किया है। वह सन् 1967 की बाढ़ को भी याद करता है। लेखक बताता है कि पटना शहर के सभी प्रमुख इलाकों में पानी भर गया है, लोग विभिन्न प्रकार के वाहनों से तथा पैदल भी बाढ़ के पानी को देखने जा रहे हैं। सभी के मन में बाढ़ के जल से प्लावित क्षेत्रों से संबंधित सूचना के प्रति गहरी उत्सुकता है। लेखक अपने एक कवि-मित्र के साथ एक रिक्शे वाले से बातचीत करते हुए उसके रिक्शे पर बैठा यह सब दृश्य देख रहा है।
लेखक बाढ़ और उसके कारण पटना शहर के अस्त-व्यस्त हुए जनजीवन के विषय में बताता है। पटना शहर में आई बाढ़ के भयंकर अनुभव का वर्णन करते हुए वह स्पष्ट करता है कि आकाशवाणी से प्रसारित समाचार पर कान लगाए सुनते लोगों ने जब संवाददाता के मुँह से यह सुना कि पानी किसी भी क्षण हमारे स्टूडियो में प्रवेश कर सकता तो सब लोग डर गए। कहने का तात्पर्य यह है कि सारे लोग बाढ़ के प्रलय से परेशान और अव्यवस्थित हो गए हैं।लेखक के अनुसार उसके अप्सरा सिनेमा पहुंचने पर और वहाँ से पटना के प्रसिद्ध गांधी मैदान का दृश्य देखने पर रामलीला के दशहरे की याद आ जाती है क्योंकि वैसी ही भीड़ बाढ़ की विभीषिका का दर्शन कर रही थी। लेखक को ऐसा लगा जैसे दक्षिण भारत के धनुष्कोटि द्वीप की भाँति आज पटना शहर भी जल प्रलय में समा जाएगा क्योंकि ऐसा लग रहा था कि पानी सबको अपने में डुबोता शहर के सभी हिस्सों में घुस रहा है।
सरकार के जनसंपर्क विभाग की गाड़ी पटना शहर के राजेन्द्र नगर इलाके में सावधान-सावधान की उद्घोषणा कर रही थी। लेखक इन दृश्यों से घबराकर सोने की कोशिश करने लगा लेकिन उसे नींद नहीं आई अपितु उसकी स्मृति में 1947 और 1949 की बाढ़ के दृश्य आ गए जब अपने गुरू स्व. सतीनाथ भादुड़ी के साथ वह गंगा की बाढ़ से प्रभावित इलाकों में राहत और सहायता कार्य के लिए गया हुआ था। लेखक बताता है कि उसके गुरू की हिदायत थी कि राहत सामग्री में सबसे पहले दवा, किरासन का तेल और माचिस होने चाहिए।
सन् 1949 की बाढ़ भी कुछ ऐसी ही थी। इसी प्रकार जब लेखक बालक था तब सन् 1937 की बाढ़ आई थी और उसमें नाव को लेकर लड़ाई हो गई थी। 1967 की बाढ़ की याद करते हुए पुनपुन नदी के जल सैलाब को याद करता है।
एकाएक लेखक को यह याद आता है कि उसके मित्र और रिश्तेदार तत्काल आई हुई बाढ़ में फँसे हैं। टेलीफोन डेड होने के कारण उनसे संपर्क कर पाना भी संभव नहीं उसकी इच्छा फिर कुछ लिखने को बलवती हो उठी उसने अपनी स्मृति में वह दृश्य दुहराया जब उसने बाढ़ के पानी में घिरी आसन्नप्रसवा महिला को गाय के समान अपनी ओर टकटकी लगाए देखा था।
अंत में लेखक को नींद आ गई सुबह जब लोगों ने उसे झकझोर कर जगाया तो उसने देखा कि जहाँ वह था, उस जगह की ओर बड़ी तेज़ी से झाग-फेन से भरा बाढ़ का पानी आ रहा था। दीवारं डूब रही थीं। लेखक कहता है कि यदि उसके पास कैमरा या टेप रिकार्डर होता तो वह इस जल प्रलय को, उसक जल ताण्डव को अपनी स्मृतियों में सुरक्षित करता। बाढ़ें बहुत आईं लेकिन यह तो साक्षात् जलप्रलय था। लेखक के देखते ही देखते चाय वाले की दुकान, जल पार्क हरियाली सभी जलमग्न हो गए। उसका कहना है, कि अच्छा है इस दारुण दृश्य के अंकन हेतु उसके पास कुछ भी नहीं क्योंकि उसकी कलम भी चोरी चली गई थी। बाढ़ ने सबकुछ ले लिया। वह अपने को हतोत्साहित और असहाय महसूस करने लगा
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